लाल बॉर्डर और सफेद साड़ी का आदिवासी समुदायों में विशेष सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है, खासकर सरहुल पर्व के दौरान। नृत्य और संगीत आदिवासी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, जिसमें यह मान्यता है कि “जे नाचे से बांचे” (जो नाचेगा, वही बचेगा)। सरहुल के अवसर पर महिलाएं लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनकर गीत गाते हुए नृत्य करती हैं। सफेद साड़ी पवित्रता और सादगी का प्रतीक है, जबकि लाल बॉर्डर संघर्ष और जिजीविषा का प्रतीक माना जाता है।
सरहुल कैसे मनाया जाता है: सरहुल की तैयारियां एक सप्ताह पहले ही शुरू हो जाती हैं। पाहन (आदिवासी पुजारी) एक दिन पहले से उपवास रखते हैं और पूजा संपन्न होने तक उपवास जारी रहता है। पर्व के दिन भोर में, पाहन दो नए मिट्टी के घड़ों में पानी भरकर उसे सरना मां के चरणों में चुपचाप अर्पित करते हैं, ताकि उन्हें कोई देख न सके। इस दिन आदिवासी साल वृक्ष की पूजा करते हैं, जिसे पवित्र माना जाता है।
सरहुल से पहले गांव के सरना स्थल (पवित्र स्थान) की अच्छी तरह सफाई की जाती है। पर्व के दिन सुबह गांववाले मुर्गा पकड़ते हैं, जिसका उपयोग पूजा में किया जाता है। पाहन अनाज अर्पित कर देवी-देवताओं से गांव की समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं।
लाल बॉर्डर वाली साड़ी का महत्व: सरहुल के दौरान महिलाओं का लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनना परंपरा है। सफेद रंग शांति और पवित्रता का प्रतीक है, जबकि लाल रंग क्रांति और संघर्ष का प्रतीक है। सरना झंडा भी सफेद और लाल रंग का होता है, जहां सफेद रंग सिंगबोंगा (सर्वोच्च देवता) और लाल रंग बुरूबोंगा (पृथ्वी की आत्मा) को दर्शाता है। इसलिए, सरना झंडा भी इसी प्रतीकवाद को दर्शाता है।
आदिवासी संस्कृति में प्रकृति पूजा: आदिवासी समुदाय कृषि पर निर्भर होते हैं, इसलिए उनके हर शुभ कार्य की शुरुआत प्रकृति पूजा से होती है। सरहुल भी प्रकृति को समर्पित पर्व है। यह पर्व रबी फसल की कटाई के समय मनाया जाता है। सरहुल के दिन ही पाहन वर्षा का पूर्वानुमान लगाते हैं—कभी वह वर्षा के लिए समृद्धि की भविष्यवाणी करते हैं, तो कभी सूखे की चेतावनी देते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में सरहुल का उत्सव: शहरी इलाकों में सरहुल का आयोजन विभिन्न आदिवासी संगठनों द्वारा निर्देशित और केंद्रित रूप में किया जाता है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसे एक महीने तक मनाया जाता है, जहां अलग-अलग गांवों में अलग-अलग दिनों पर सरहुल का आयोजन होता है।
आदिवासी बुनाई का इतिहास और लाल बॉर्डर की परंपरा: प्राचीन काल में लोग वस्त्र नहीं पहनते थे, क्योंकि उन्हें बुनाई का ज्ञान नहीं था। किंवदंती के अनुसार, हेम्ब्रुमाई, जो दुनिया की पहली बुनकर मानी जाती हैं, ने माटाई (सृष्टि के रचनाकार) से बुनाई की कला सीखी थी। उन्होंने नदी की लहरों और धाराओं को देखकर वस्त्रों में डिजाइन का निर्माण किया। उन्होंने पेड़ों की शाखाओं, बांस की पत्तियों, पौधों और फूलों को देखकर अपने वस्त्रों में सुंदर पैटर्न बनाए।
झारखंड के आदिवासी परिधान: झारखंड के आदिवासी समुदायों का पारंपरिक परिधान लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी, गमछा और शॉल है। मोटे सूती कपड़े से बनी ये पोशाकें झारखंड के सभी आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, खड़िया, संथाल, हो और उरांव में पहनी जाती हैं। हालांकि ये सभी समान दिखते हैं, लेकिन प्रत्येक समुदाय की लाल बॉर्डर की डिजाइन अलग-अलग होती है।
चिक बड़ाईक समुदाय का बुनाई शिल्प: झारखंड के चिक बड़ाईक आदिवासी समुदाय को पारंपरिक वस्त्र बुनाई में महारत हासिल है। स्वतंत्रता के शुरुआती दो दशकों तक, जब मिलों में बने कपड़े आदिवासी इलाकों में नहीं पहुंचे थे, तब चिक बड़ाईक समुदाय के हथकरघा पूरे झारखंड में प्रचलित थे। हालांकि, औद्योगीकरण और आधुनिकता के चलते यह परंपरा विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है। फिर भी, झारखंड के कुछ चिक बराइक परिवार अब भी पारंपरिक बुनाई कला को जीवित रखे हुए हैं और पुराने तरीके से वस्त्र निर्माण कर रहे हैं।
चिक बड़ाईक समुदाय का निवास: झारखंड के 32 अनुसूचित जनजातियों में से एक चिक बराइक जनजाति है। इन्हें आदिवासी समाज का बुनकर समुदाय माना जाता है, जो अब भी अपनी पारंपरिक कला को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।
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