KML Desk: हम भारतीयों की जिंदगी में एक कहावत बहुत प्रचलित है, ‘खर्चा पानी बराबर’। यानी खर्चा ऐसा हो कि जरूरतें पूरी हों, लेकिन जेब पर ज्यादा बोझ न पड़े। पर आज के दौर में यह कहावत सिर्फ इतिहास बनकर रह गयी है, क्योंकि अब खर्चा, पानी के बराबर नहीं, बल्कि बाढ़ के बराबर हो गया है और आम आदमी उस बाढ़ में डूबता ही चला जा रहा है। केजरीवाल डर रहा है, तो बिहार इतरा रहा है। वहीं झारखंड ठिसुआ रहा है। ठिसुआया झारखंड पड़ोसी बिहार को टुकुर-टुकुर देख रहा है और पूछ रहा है कि हे नीतीश बाबू बता दे दवाई। 50 लाख करोड़ का खर्चा पानी बुआ ने बता दिया। 12 लाख ब्याज में तो 19 लाख कैपिटल इन्वेस्टमेंट में और बाकी तनख्वाह आदि में खर्च होगा। घटेगा तो और कर्जा लिया जायेगा। पहले से 47 लाख करोड़ का कर्जा है, उसको स्वीकार करते हैं। लेकिन चुनाव है, इसलिये आम आदमी को औकात में लाना जरूरी है। लाला का मुनीम खुश है कि अब तनख्वाह के साथ घोटाला करने का भी मौका मिलेगा। अब 12 लाख तक टैक्स देना नहीं पड़ेगा।
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महीना खत्म होते ही जैसे ही तनख्वाह खाते में आती है, वैसे ही वह गायब होने लगती है। पहले तो किराये का धक्का लगता है, फिर बिजली, गैस और मोबाइल का झटका। इंटरनेट का बिल भरते हुए ऐसा लगता है कि अगर यही हाल रहा, तो एक दिन वाई-फाई के पास बैठ कर इंटरनेट से ही भीख मांगनी पड़ेगी। महीने की पहली तारीख को तो बैंक बैलेंस रईसों जैसा लगता है, लेकिन पांच तारीख आते-आते वह किसी छात्र के जेब खर्च जैसा हो जाता है, फिर उधारी पर जीने का समय आ गया।
पहले लोग उधारी लेते थे, अब क्रेडिट कार्ड का जमाना आ गया है। दिखता है कि पैसा है, लेकिन असलियत में वह बैंक का पैसा होता है, जो महीने के अंत में ब्याज समेत वापस लेना चाहता है। महीने के शुरुआत में जो खुशी होती है, वह क्रेडिट कार्ड का बिल देखकर जलसमाधि लेने का मन बना देती है। शॉपिंग के समय तो लगता है कि दुनिया हमारी मुट्ठी में है, लेकिन जब बिल आता है, तो एहसास होता है कि मुट्ठी में कुछ भी नहीं बचा।
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हर महीने की शुरुआत में हम सोचते हैं कि इस बार कुछ बचत करेंगे, लेकिन महीने के अंत में हाथ में पछतावे के अलावा कुछ भी नहीं बचता है। निवेश करने की सलाह देने वाले दोस्त भी होते हैं, जो कहते हैं कि म्यूचुअल फंड सही है। लेकिन, जब जेब में पैसे ही न हों, तो निवेश सिर्फ सपने जैसा ही लगता है। आज के दौर में ‘खर्चा पानी बराबर’ की जगह ‘खर्चा तूफान बराबर’ कहावत ज्यादा सही लगती है। आम आदमी की कमाई एक नाव की तरह है, जो महंगाई, बिलों और किस्तों की लहरों में हिचकोले खा रही है। अब सवाल यह है कि यह नाव किनारे लगेगी या डूबती ही चली जाएगी? जवाब शायद अगले महीने की सैलरी ही दे पाएगी।