गिव एंड टेक की राजनीति पर टिकी आजसू की राजनीति
KhabarMantraLive : कर्मण्येवाधिकारस्ते को पूरे ब्राह्मणत्व के साथ यज्ञोपवीत की तरह धारण किया जाए तो जातक की जन्मपत्री में शत्रुहंता योग प्रबल हो जाता है। विखंडित जनादेश और त्रिशंकू विधानसभाओं के बड़े चर्चे होते रहते हैं। छोट-बड़े कई राज्यों में देर सबेर ऐसी स्थितियां बन जाती है, जब किसी राजनीति दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और सरकार गठित करने के लिए जोड़-तोड़ की कवायद और मोल-भाव होने लगते हैं। ऐसी स्थिति में विवाद भी जन्म लेते हैं और देखते-ही देखते सारा माहौल कटूता, निराशा और अस्थिरता से भर जाता था। ऐसी स्थिति संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक है। राजनीतिक दलों के स्वयंभू नेताओं के अलावा समाज का पढ़ा लिखा तबका भी जनता को कोसता दिखाई देता है। मानो वोटर से बोल रहा हो- लो बच्चू। हमें नहीं जिताया, अब देख लो नतीजा। दरअसल, मीडिया और तथाकथित पॉलिटिकल एक्सपर्ट जिसे भंड या विखंडित जनादेश कहते हैं, वह वोटर का एक स्पष्ट संदेश होता है जिसे अपने स्वार्थों और दंभ के कारण राजनीतिक दल समझने का तैयार नहीं हैं। हमने देखा है कि विधानसभा यहां तक कि लोकसभा चुनावों के दौरान भी यह युक्ति राजनीतिक दलों ने अपनाई है। कहीं कारगर हुई और कहीं जनता ने अपने ढंग से जवाब दिया।
झारखंड में राजनीति की विडंबना रही है कि वहां 24 वर्षों तक खंडित जनादेश की बैशाखी पर सरकारें जोड़-तोड़ की बुनियाद पर बनती रही। सत्ता, सियायत और सिस्टम से समझौता करते राजनीतिक दलों के पास गठजोड़ के ऑप्शन तो हमेशा रहे हैं लेकिन जनता के सामने खड़ा होने की इमानदार हिमाकत नहीं कर सकी हैं। शायद ये ही वजह है कि ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन जैसी पार्टी इन दिनों वेंटीलेटर पर है। आजसू, झारखंड की एक ऐसी नामधारी पार्टी है जिसकी बुनियाद स्टूडेंट्स के उत्थान, शैक्षणिक बूस्टिंग के नाम पर रखी गई थी लेकिन उद्देश्यों को दरकिनार कर सत्ता के साथ गलबहियां करती रही है।
चुनाव माथे पर है, तेवर बदलना राजनीतिक पार्टियों की मजबूरी है। आखिर जनता को फिर से रिझाने का काम करना है। सत्ता की मलाई खूब खाई अब चुनावी समर में रण की तैयारी करनी है, इसलिए थोड़े बहुत बगावत के बोल तो बोलने ही होंगे। बोलने इसलिये होंगे कि जनता के बीच जाना है और उसे बताना है कि मॉजूदा हेमंत सरकार ने जनता को योजनाओं के नाम पर कैसे ठगा है। लेकिन इन तथ्यों की पड़ताल के पहले यह जानना जरूरी है कि आजसू पार्टी की इतिहास क्या है?
आजसू का गठन
आजसू की बुनियाद अलग झारखंड आन्दोलन के दौरान असम स्टेट की ऑल असम स्टूडेंट यूनियन की तर्ज पर 1986 में बनी थी। आजसू गठन का मकसद स्टूडेंट्स को एकजुट करना था। उनकी आवाज बनना था और झारखंड आन्दोलन में स्टूडेंट्स की भागदारी बढ़ाना था। इसके अलावा शिक्षा के क्षेत्र में स्टूडेंट की मांगों के अनुरूप उन्हें हक दिलवाना था। पार्टी के संस्थापक सूर्य सिंह बेसरा ने कभी कहा था कि नो झारखंड नो इलेक्शन। लेकिन बाद में ऐसा आरोप लगाया जाता है कि सुदेश महतो ने पार्टी को हाइजैक कर लिया और फॉर्मूला को बदलकर पहले इलेक्शन उसके बाद झारखंड कर दिया! आजसू के गठन को अभी एक अरसा भी नहीं बीता था कि उसने 1990 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के निशान पर चुनाव भी लड़ा। फिर उसके बाद वह पूरी तरह से राजनीतिक पार्टी बन गई। स्टूडेंट्स के मुद्दे गौण होते चले गए और राजनीति रोटियां के खिचड़ी का स्वाद लिया जाने लगा।
सत्ता से करीबी फिर भी दुर्दशा की ओर बढ़ते कदम
झारखंड गठन के 24 सालों में आपकी पार्टी सत्ता के साथ गलबहियां करती रही है। गृह मंत्रालय और उप मुख्यमंत्री सहित विभिन्न मंत्रालयों में इनके विधायकों को पद भी मिला। सत्ता बीजेपी की हो या फिर यूपीए की। आपकी पार्टी ने हमेशा ही मोल भाव कर सत्ता को बैशाखी दी है। स्टूडेंट्स जो शिक्षा के लिए पलायन कर जाते हैं, क्या वे झारखंड में ही अच्छी शिक्षा पाने के हकदार नहीं थे। आजसू पार्टी को यूथ की पार्टी कहा जाता है। स्टूडेंट्स की पार्टी कहा जाता है। सुदेश फुटबाल से लेकर क्रिकेट की राजनीति के भी शौकीन रहे हैं। सिल्ली में एक स्टेडियम बनाकर अपना फर्ज अदा कर दिया जबकि पूरे राज्य का नेतृत्व करते हैं फिर सिल्ली पर ही फोकस रहा।
क्रीमी लेयर से नजदीकियां
दरअसल, आजसू का गठन तो स्टूडेंट की समस्याओं और झारखंड आन्दोलन में छात्रों की भागीदारी बढ़ाने के लिए हुआ था। लेकिन चुनाव में आने के बाद पार्टी की सोच में बदलाव हो गया। अब छात्रों का आन्दोलन करने वाली पार्टी कुर्मी और आदिवासियों की हितों की बात करने लगी थी लेकिन पर्दे के पीछे क्रीमी लेयर से संपर्क बढ़ता गया। पार्टी के सुप्रीम और आलंबरदार अब बिजनेस लाबी से नजदीकियां बढ़ाने लगे। अब आजसू सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचने के लिए अवसरवादिता की सोच से ग्रसित हो चुकी थी। 2000 से ही सत्ता में रहने वाली आजसू पार्टी ने हमेशा ही ऐसे विभागों को लेकर बड़ी पार्टियों को सपोर्ट किया जिससे उसकी पहचान बन सके। लंबे समय तक सत्ता में रही है और सत्ता को लेकर समझौता भी करती रही है इसके बाबजूद गांव का संवाद नीति निर्धारकों के पास पहुंचा। सुदेश अपने ही क्षेत्र में पराए हो गये। कल का नेता सुदेश जैसे कदावर नेता को हरा देता है। दूसरी बार चुनाव में खड़े होते हैं तो उसकी पत्नी से हार जाते हैं। सुदेश ने क्रीमी लेयर के नेता का चोला पहन लिया था। जो कभी आपके मातहत हुआ करते थे अब उनके उनके मातहत हो गए हैं। अब आपकी नीतियों की वजह से आपकी पार्टी का जनाधार खिसकने लगा है। यूथ दूर हो गए।
आजसू का मैजिक बस भी काम नहीं आया!
आजसू ने 2012 में मैजिक बस जैसा कार्यक्रम भी करवाया था और कहा था गांव कस्बों के युवकों को फुटबाल खेलने के लिए जागृत करेंगे खेल के जरिये विकास की इबारत लिखेंगे। उस मैजिक बस कार्यक्रम भी फिस्स हो गया। सुदेश खेल मंत्री भी रहे हैं लेकिन आपके कार्यकाल में खेल यूनिवर्सिटी नहीं बनवा सके। वो तो भला कहिए नेशनल गेम का जिसने खेलगांव बनाने को सरकार को मजबूर कर दिया। चुनाव के समय सत्ता के खिलाफ बोलना और चुनाव जीतने के बाद सत्ता के साथ समझौता करना आजसू की फितरत बन चुकी है। आजसू को बिना सत्ता में रहे बेचौनी होने लगती है। अब चंद्रप्रकाश चौधरी को ही ले लीजिए। आज की तारीख में वो अपने विधानसभा क्षेत्र को छोड़कर बीजेपी के भरोसे गिरिडीह से सांसद हैं। रामगढ़ से उनकी पत्नी विधायक हैं। उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है लेकिन आपके क्षे़त्र में एक युवा आपको चुनाव हराकर चुनौती खड़ी कर देता है।
उधर, बीजेपी को भी यह एहसास हो चुका है कि आपकी पार्टी का जनाधार खिसक रहा है और इतना याद रखिए टूटे हुए जामों पर मयखाना नहीं रोया करता। दूसरी बात ये है कि आपका जनाधार कुर्मी वोटरों का है और कुर्मी वोटर की युवा जमात जयराम टाइगर के साथ खड़ी है। गिरिडीह लोकसभा चुनाव में वोटों का प्रतिशत इस बात की गवाही दे रहा है। आपका जनाधार खिसकता जा रहा है। आप ट्राइबल कार्ड खेलने में पूरी तरह से नाकाम रहे हैं। वहीं आजसू पार्टी ने अब तक सेकेंड लाईन तैयार नहीं की है। सीपी चौधरी अपने निजी व्यक्तित्व की वजह से चुनाव जीतते रहे हैं जो सुदेश रिश्तेदार भी हैं। आजसू ने स्पेशल स्टेट दर्जा को लेकर आन्दोलन किया फिर उस आन्दोलन पर कुंडली मारकर बैठ गयी। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस बीजेपी के साथ आजसू थी, उन्हीं के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने स्पेशल स्टेट का दर्जे के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। आपने झारखंड राज्य में पांचवी अनुसूची का दर्जा दिलाने और यहां के 27 फीसदी कुर्मी को आदिवासी का दर्जा दिलाने के लिए आन्दोलन चलाया था। ये आन्दोलन 2009 से 2011 तक चलाया था। वह आन्दोलन भी ठंडे बस्ते में डाल दिया।
लोकसभा की पांचों सीटों पर हार
जनवरी 2014 में रन फार झारखंड का कार्यक्रम आजसू ने किया। साथ ही राज्य के अधिकार के लिए हल्ला बोल कार्यक्रम चलाया। आजसू कार्यक्रमों से इतनी उत्साहित हुई कि 2014 के लोकसभा चुनावों में 5 लोगों को मैदान में उतार दिया और खुद भी कूद पड़े। लेकिन दुखद पहलू ये है कि पार्टी एक भी लोकसभा की सीट नहीं जीत सकी। समझ लीजिए कि आपकी कुर्मी वोटरों पर भी पकड़ नहीं है।
बीजेपी के शामियाने में आजसू
आज के दौर में आजसू का भविष्य बीजेपी की अंगड़ाई पर टिका है। समझौता है तो जाहिर है कि विधानसभा चुनाव में आजसू दो चार सीटें ने भी आये लेकिन भाजपा के सपोर्ट के बिना वर्तमान हालात में आजसू की एक सीट पर भी संशय बना हुआ है। याद कीजिये जदयु की कभी प्रदेश में 5 से 6 सीटें हुआ करती थीं आज जदयू झारखंड में इतिहास बन चुकी है। आजसू पार्टी बीजेपी के शामियाने के एक कोने में बैठी ऐसी पार्टी बनकर रह गयी है, जिसे सिर्फ बीजेपी ही बचा सकती है। पहले तो आजसू की सिर्फ जेएमएम से सीधी टक्कर हुआ करती थी, लेकिन अब जयराम की जेबीकेएसएस भी चुनाव में कूदने जा रही है और उसके साथ युवा कुर्मी नेताओं की टोली है, जमघट है। जयराम टाईगर की धमक रामगढ़, सिल्ली, गोमिया, डूमरी पेटरवार जैसी करीब 14 सीटों पर है जो किसी भी दल के दावे के समीकरण को खराब करने के लिये काफी है।
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