KhabarMantraLive: आज 4 जनवरी को पूरी दुनिया “विश्व ब्रेल दिवस” के रूप में मना रही है। यह दिन उन लोगों को समर्पित है जो अपनी दृष्टिहीनता के बावजूद शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। ब्रेल लिपि नेत्रहीन व्यक्तियों के लिए एक अनमोल तोहफा है, जिसने उनके जीवन को सरल और सार्थक बनाया है।
लुईस ब्रेल: एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व
ब्रेल लिपि के जनक लुईस ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 को फ्रांस के कुप्रे नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम साइमन रेले ब्रेल था। मात्र तीन साल की उम्र में एक हादसे में उनकी एक आंख पर चोट लगने के कारण वे दृष्टिहीन हो गए। आर्थिक तंगी के चलते सही इलाज न हो पाने से उनकी दूसरी आंख की रोशनी भी चली गई और आठ वर्ष की आयु तक वे पूरी तरह दृष्टिहीन हो गए।
ब्रेल लिपि का अविष्कार
लुईस ब्रेल ने नेत्रहीनों के लिए एक स्कूल में दाखिला लिया। वहां उन्हें सेना द्वारा उपयोग की जाने वाली एक कोड लिपि के बारे में जानकारी मिली, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने नेत्रहीनों के लिए पढ़ने-लिखने की ब्रेल लिपि विकसित की। यह लिपि छोटे-छोटे उभरे हुए बिंदुओं के माध्यम से काम करती है, जिसे छूकर पढ़ा और लिखा जा सकता है।
आधुनिक युग में ब्रेल लिपि का डिजिटल स्वरूप
आज का तकनीकी युग ब्रेल लिपि को नई ऊंचाइयों पर ले गया है। डिजिटल उपकरणों की मदद से अब ब्रेल सीखना और उपयोग करना बेहद आसान हो गया है। नेत्रहीन बच्चे अब खेल-खेल में ब्रेल लिपि सीख रहे हैं और कंप्यूटर का कुशलता से उपयोग कर रहे हैं।
शिक्षा में नई क्रांति
कोरोना काल ने भी नेत्रहीन बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभाई है। अब बच्चे अपने पाठ्यक्रम को ब्रेल लिपि के साथ-साथ ऑडियो सामग्री के माध्यम से सुनकर समझते और याद करते हैं। इससे उनकी रुचि विभिन्न कोर्स और करियर विकल्पों में बढ़ी है।
आज नेत्रहीन बच्चे 10वीं और 12वीं की पढ़ाई के बाद दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में दाखिला ले रहे हैं। यह उनकी मेहनत और ब्रेल लिपि के योगदान का ही परिणाम है।
ब्रेल लिपि ने नेत्रहीन समुदाय को न केवल शिक्षा बल्कि आत्मनिर्भरता का भी मार्ग दिखाया है। डिजिटल तकनीक ने इसे और भी प्रभावी बना दिया है। विश्व ब्रेल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि समानता और समावेशन के प्रयासों से हर चुनौती को अवसर में बदला जा सकता है।
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